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एक कहानी ऐसी भी...

-Shriya & Tejaswini

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"काश कोई रोटी डे; भी होता, तो उस दिन कोई गरीब भूखा नहीं सोता। " न जाने आज भी इस देश में कितने गरीब लोग होंगे जो भोजन की जगह अपनी खाली थाली में अपने सूखे चेहरो को देखते होंगे। कोरोना से कुछ लोग अस्वस्थ हुए तो कुछ लोगों की जानें भी गईं। इस महामारी ने शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ लोगों को भी अंदर से खोखला कर डाला । जब देश की ऐसी दुर्दशा होने का इल्ज़ाम किसी पर नहीं डाला जा सकता, तो फिर गिने-चुने लोगों के लिए सज़ा क्यों? क्या उन्हे शोक जताने का भी अधिकार नहीं होता ? 


अध्ययन 1


अधिकांश निजी क्षेत्रों द्वारा दी जाने वाली नौकरियों को यात्रा पैकेज, परिष्कृत बुनियादी ढांचे और रचनात्मक वेतन पैकेज की मदद से आकर्षक बनाया जाता है। लेकिन निजी नौकरियों के ऊपर सरकारी नौकरियों का विकल्प चुनने का आम कारण है, नौकरी की सुरक्षा। बहुत संख्या में लोगों ने अपनी नौकरियाँ खो दी क्योंकि उनकी कंपनी कर्ज में डूब रही थी। विमानपत्तन क्षेत्र द्वारा एक परियोजना के लिए लगभग 100 वाणिज्यिक पायलटों को अनुबंधित किया गया था किंतु वित्तीय कारणों से यह अनुबंध रद्द कर दिया गया। अभिनव भी उन 100 पायलटों मे से एक था। उसके लिए परियोजना से बाहर होने का अर्थ केवल वित्तीय नुकसान ही नहीं बल्कि मानसिक कुप्रभाव भी था। कई परीक्षाओं में अपनी विमान उड़ाने की क्षमता को साबित करने के बाद, वह अब घर पर बेरोज़गार बैठा है। एक ही सवाल जो उससे बार बार कोच रहा था कि अपने घर और अपने बच्चों की शिक्षा के लिए लिए गए लोन का भुगतान कैसे करेगा?


अध्ययन 2


गीता एक बांग्लादेशी घरेलू कामगार है जो भारत बेहतर भविष्य की तलाश में आयी थी। कुछ समयके लिए जीवन बेहतर हो रहा था मगर करोना महामारी आने के बाद सब तबाह हो गया। वह अपने छोटे भाई को साथ लेकर इस देश में आयी थी लेकिन उसे अपने भाई को गाँव वापिस भेजना पड़ा क्योंकि उसकी हर उस घर से नौकरी छूट गयी थी जहाँ वह काम करती थी। गीता, दोनों का भविष्य सुरक्षित करने की आशा से शहर में ही बनी रही। मगर करोना और सरकार ने उसकी वित्तीय और सामाजिक सुरक्षा छीन ली। अंत में, उसे एक निर्माण स्थल पर दिहाड़ी मज़दूर होने का सहारा लेना पड़ा.

अध्ययन 3

बुढ़ापा एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जब शरीर में चाहतों को पूरा करने की ऊर्जा नहीं बचती। कहते है कि यह बचपन का दूसरा दौर होता है।  75-80 साल के शिलोकेश अपने बेटे केशव के साथ अब ‘ रैन बसेरे ’ में अपनी रातें गुज़ारते हैं। केशव एक छोटी दुकान में कपड़े सिलने का काम करता था। दुकान के मालिक ने शुरुआत में कुछ अनाज देकर मदद भी की किंतु निरंतर होते नुक़सानों की वजह से दुकान पर ताला लगाना पड़ा। निराश केशव को अपनी और पिता की देख-भाल करने के लिए  अब कम वेतन पर ‘ फ़ेस मास्क ’ सिलने होंगे। 


अध्ययन 4


रामपाल एक छोटे से रेस्त्रां में वेटर का काम करके अपना जीवनयापन करता था। वह ४ बच्चों, माता- पिता और दादा-दादी के बड़े परिवार का सदस्य था । उसके पिता ने भी अपनी दूधवाले के रूप में नौकरी खो दी थी। महमारीं के कारण रेस्त्रां में ग्राहक घट गए और उसे निकाल दिया गया। मगर तालाबंदी प्रतिबंधों की छूट पर उसने किसी तरह अपनी और अपने पिता की बचत जुटा कर एक छोटा सा मोमोज़ का स्टाल खोला। ताज़ा उम्मीद के साथ, वह अपने और अपने परिवार के जीवित रहने लायक कमाई करने में सक्षम हुआ। इस दुर्दशा ने इस युवक के सपनों को नहीं मारा और वह सब ख़तम होने के बाद बेहतर व्यवसाय और भविष्य की कामना रखता है।


अध्ययन 5


करोना वायरस के लिए एहतियात के तौर पर देशव्यापी तालाबंदी लागू की गई। एक ओर जहाँ हमने अपने परिवार के साथ अच्छा समय बिताया और स्कूल, कार्यालय के तनाव से हमे राहत मिली,  वहीं दूसरी ओर कई लोगों को तनावपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा। हमारी कॉलोनी के एक गैराज में कपड़े इस्तरी करने वाले लड़के को हर महीने लगभग 300-400 रुपये का रोज़गार और कभी-कभी लोग उसे बचा हुआ खाना और पहनने के लिये पुराने कपड़े भी दे देते थे। लॉकडाउन के शुरुवाती  समय मे उसकी सेवाओं की मांग में भारी कमी आई क्योंकि लोग अपने कार्य स्थल पर नहीं जा रहे थे। इसके अलावा वायरस की दहशत से सब डरे हुये थे। जब उसकी अधिकांश बचत के पैसों का उपयोग हो गया तब उसके पास के गुरुद्वारे में भोजन करना एकमात्र उपाए था । लॉकडाउन के दूसरे चरण ने उसकी स्थिति को बद से बदतर बना दिया। अबकी बार जब वह बीमार पड़ा  तो लोगों को यह डर सता रहा था कि वह करोना वायरस का वाहक हो सकता है। अवरुद्ध सड़कों और पुलिस द्वारा उत्पीड़न के कारण वह आपने गाँव वापस जाने में भी असफल रहा। मुझे आश्चर्य है कि यदि वह अपने एक वक़्त के खाने का प्रबंध नहीं कर पा रहा था तब वह पुलिस द्वारा लगाया गया जुर्माना कैसे चुका पता?

इस लॉक डाउन के दौरान हज़ारों लोगों के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय यह था कि वे अपने बेबस  झुके हुए सिर पर कोई छत रख सकेंगे या नहीं या फिर उनकी सहमी हुई सी रूह को कभी कोई दिलासा देगा?

हमारे समक्ष लोगों में सामाजिक और वैचारिक विभाजन पहले भी था। इस मुश्किल घड़ी ने बस इस वास्तविकता को स्पष्ट रूप से सबके सामने रखा है। जब सारे बेरोज़गार लोग समय की मार से पीड़ित हो कर सड़कों पर उतार आते हैं तब वह अपनी मरती हुई उम्मीद को जिंदा रखने के लिए इंसानियत के दरवाज़े पर दस्तक देते हैं। ऐसी आपदा टूट पड़ने पर हमें यह ज्ञात होता है कि हमारी स्वास्थ्य  तथा प्रसाशनिक व्यवस्था का प्रबंधन वास्तविक स्थिति से निपटने में कितना सक्षम है। हमारा प्रशासन और आम जनता क्या वर्तमान के अनुभव से भविष्य में आने वाली ऐसी ही किसी आपदा का सामना करने में सक्षम रहेगी?

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